कविता: सुरमई क्षितिज पर

निराशा को परास्त कर और…
संत्रासों से परे, एक गुलाबी ‘आशा’
ऊंची उड़ान के पर फैलाए-
रक्ताभ क्षितिज पर साम्राज्य –
और विषमताओं को ध्वस्त करती,
एक !


अनूठी सुरमयी, संगीत की थाप पर-
मनोहारी नृत्य करती, विराजमान होती है….!
सांझ प्रहर पर-
मानो, गुलाबी चांदनी प्रज्जवलित होकर,
संभावनाओं, आमोद-प्रमोद के-
असंख्यों कोंपल फूटती कलियों
और फूलों के महासागर में-
दिलकश गीतों-तरानों को स्वर देती,
नन्हीं-नन्हीं उड़ती तितलियों की उड़ान-
और गुंजायमान, गुनगुनाते भंवरों सी


नन्हीं बालिका और कोयल की कुहूक लिये
क्षितिज पर, पूर्ण चंद्रमा की चांदनी सी-
कई निराशाओं को पराजित करती,
एक भोली सी आशा…
सुगंधो की साम्राज्ञी सी-
समेट लेती है अपने आगोश में…!
जहाँ केवल स्वर्ग है, पुनीत पर्व है,
सुरमई क्षितिज पर….!!

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राजेश शर्मा 
बड़ोदेश गुज

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