भारतीय जनमानस में यदि कोई ऐतिहासिक प्रेम कथा सबसे अधिक लोकप्रिय हुई है, तो वह है “जोधा-अकबर” की प्रेमकहानी। किंतु यह जानना महत्वपूर्ण है कि यह कथा इतिहासकारों द्वारा नहीं, बल्कि राजनीतिक मंशाओं और सांस्कृतिक मनोरंजन उद्योग द्वारा गढ़ी गई है। यह कथा भारतीय समाज में इतिहास और स्मृति के संबंध को किस प्रकार प्रभावित करती है, इसे समझना आज पहले से अधिक आवश्यक हो गया है।
ऐतिहासिक स्रोत क्या कहते हैं?
मुगल सम्राट अकबर के समय के दो प्रमुख ग्रंथ, अबुल फजल द्वारा लिखा गया “अकबरनामा” और उसके पुत्र जहाँगीर द्वारा रचित आत्मकथा “तुजुक-ए-जहाँगीरी”, इनमें “जोधा बाई” नाम का कोई उल्लेख नहीं है। न ही अकबर ने, और न ही जहाँगीर ने अपनी माँ को “जोधा” कहा है।
इतिहास में दर्ज अकबर की पाँच प्रमुख पत्नियाँ थीं:
- सलीमा सुल्तान
- मरियम-उज़-ज़मानी
- रज़िया बेगम
- कासिम बानू बेगम
- बीबी दौलत शाद
इनमें मरियम-उज़-ज़मानी को बाद के स्रोतों में हीर कुंवर, हरका बाई या रुकमा बिट्टी कहा गया है, लेकिन कहीं भी “जोधा” नहीं।
स्मृति और इतिहास के बीच टकराव
“जोधा” नाम की रचना 18वीं सदी में हुई, जब ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक Annals and Antiquities of Rajasthan में अकबर की राजपूत पत्नी को “जोधा बाई” कहकर संबोधित किया। इसके बाद, औपनिवेशिक इतिहास लेखन, और आधुनिक फिल्मों व धारावाहिकों ने इस मिथक को इतना प्रचारित किया कि यह झूठ धीरे-धीरे जनस्मृति में सत्य की तरह स्थापित हो गया।

यह मिथक क्यों गढ़ा गया?
समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो यह कथा “सांस्कृतिक समरसता” (cultural assimilation) और “राजनीतिक नरमी” (political reconciliation) के प्रतीक के रूप में रची गई थी। एक मुगल सम्राट और एक हिंदू राजकुमारी का प्रेम विवाह आज की “गंगा-जमुनी तहज़ीब” को दर्शाने के लिए उपयोग किया गया, भले ही इतिहास इसकी पुष्टि न करता हो।
परंतु इससे यह भी हुआ कि राजपूत अस्मिता, उनकी स्त्री स्वायत्तता और मुगल शासन के प्रतिरोध की ऐतिहासिक भूमिका पर पर्दा पड़ गया।
पहचान की राजनीति और ऐतिहासिक पुनर्लेखन
जब भी कोई राजपूत समूह मुगलों की साम्राज्यवादी नीतियों की आलोचना करता है, तो उनके सामने यह प्रेम कथा रख दी जाती है मानो वह ऐतिहासिक सत्य हो। “तुम तो जोधा के वंशज हो” जैसी बातें एक समाज की ऐतिहासिक चेतना को कमजोर करने के लिए इस्तेमाल होती हैं।
यह एक प्रकार की “सांस्कृतिक गैसलाइटिंग” है, जहां समाज को अपने ही इतिहास पर संदेह होने लगता है।
समाज के लिए यह आवश्यक है कि वह इतिहास और स्मृति में अंतर करे। हमें यह समझना होगा कि लोकप्रिय संस्कृति में प्रचलित कहानी, इतिहास नहीं होती। इतिहास को समझने के लिए हमें प्रमाणिक ग्रंथों, समकालीन स्रोतों और आलोचनात्मक अध्ययन पर भरोसा करना होगा, ना कि फिल्मों और धारावाहिकों पर।
“जोधा-अकबर” एक सुंदर फंतासी हो सकती है, लेकिन जब यह झूठ इतिहास बन जाता है, तो यह समाज की चेतना को बदल देता है।
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