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  • आदर्शों की दो प्रतिमाएं: हनुमान जी और शिवाजी महाराज से सीखने योग्य जीवन मूल्य

    आदर्शों की दो प्रतिमाएं: हनुमान जी और शिवाजी महाराज से सीखने योग्य जीवन मूल्य

    भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर अनेक महान व्यक्तित्वों से समृद्ध रही है। इनमें से दो ऐसे स्तंभ हैं, हनुमान जी, जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, और छत्रपति शिवाजी महाराज, जिनकी वीरगाथा आधुनिक भारतीय इतिहास में अमर है। इन दोनों महापुरुषों के जीवन, आचरण और आदर्श आज भी हम सभी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

    हनुमान जी: सेवा, शक्ति और समर्पण का प्रतीक

    हनुमान जी को केवल बलशाली देवता के रूप में ही नहीं, बल्कि एक आदर्श सेवक, निष्ठावान भक्त और बुद्धिमान नायक के रूप में भी जाना जाता है। उनका सम्पूर्ण जीवन श्रीराम के प्रति पूर्ण समर्पण, धर्म के प्रति निष्ठा, और संकट के समय अडिग साहस का प्रतीक है।

    निःस्वार्थ सेवा: उन्होंने कभी भी अपने लिए कुछ नहीं मांगा। उनका जीवन यह सिखाता है कि सेवा तभी पवित्र होती है जब उसमें स्वार्थ न हो।

    बुद्धि और बल का संतुलन: ‘बुद्धिमत्ता’ और ‘शौर्य’ का ऐसा संतुलन विरले ही देखने को मिलता है।

    धर्म रक्षक: जब रावण जैसे अत्याचारी सामने हों, तो धर्म के पक्ष में खड़ा होना ही सच्चा कर्म है।

    हनुमान जी का चरित्र हमें यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा केवल साधु भाव से नहीं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर साहस और सामर्थ्य से भी करनी होती है।

    शिवाजी महाराज: आत्मसम्मान, शासन और सांस्कृतिक अस्मिता के नायक

    शिवाजी महाराज का जीवन ऐसे समय में शुरू हुआ जब भारतवर्ष पर विदेशी शासन का अंधकार छाया हुआ था। उन्होंने केवल एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना नहीं की, बल्कि भारतीय संस्कृति, मर्यादा और धर्म की रक्षा के लिए आत्मबलिदान और रणनीति का अद्भुत परिचय दिया।

    स्वराज्य की स्थापना: उनका सपना केवल एक भूभाग जीतने का नहीं था, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था खड़ी करने का था जहां लोगों को सम्मान और आत्मगौरव मिले।

    गौरवशाली परंपराओं की रक्षा: जब मंदिर तोड़े जा रहे थे, जब जनमानस का आत्मविश्वास डगमगा रहा था, तब शिवाजी महाराज एक ऐसे दीपक बने जिन्होंने हिन्दवी स्वराज्य का प्रकाश फैलाया।

    न्यायप्रिय और धार्मिक सहिष्णु: वे अपने शासन में सभी धर्मों को सम्मान देते थे, परंतु अपनी सांस्कृतिक जड़ों से डिगे नहीं। यही संतुलन आज के भारत के लिए अत्यंत आवश्यक है।

    उनका चरित्र आज के युवाओं के लिए यह संदेश देता है कि बिना अपनी अस्मिता खोए, हम आधुनिक भी बन सकते हैं, और न्यायप्रिय भी।

    दो युगों, एक संदेश: धर्म और राष्ट्र की रक्षा

    हनुमान जी ने त्रेतायुग में श्रीराम की सेवा कर धर्म की रक्षा की, तो शिवाजी महाराज ने कलियुग के अंधकार में प्रकाश बनकर संस्कृति और आत्मसम्मान की रक्षा की।
    दोनों ही चरित्र यह दर्शाते हैं कि जब अधर्म बढ़ता है, तब एक समर्पित और साहसी नायक खड़ा होता है: चाहे वह वानर शरीरधारी हनुमान हो या सिंहगर्जना करता मराठा वीर।

    आज भारत को ऐसे ही चरित्रों की आवश्यकता है: जो सेवा में नतमस्तक हों, लेकिन जब जरूरत पड़े तो धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए अडिग खड़े हों।

    हनुमान जी और शिवाजी महाराज दो युगों के दो आदर्श हैं, एक दैवीय, दूसरा मानव रूप में। दोनों का जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि भक्ति केवल पूजा नहीं, बल्कि कर्तव्य पालन है; और राष्ट्रप्रेम केवल शब्द नहीं, बल्कि साहस, त्याग और विवेक का समुच्चय है।

    यदि आज का युवा इन दोनों पथप्रदर्शकों से शिक्षा ले, तो वह न केवल एक सशक्त नागरिक बन सकता है, बल्कि भारत को एक बार फिर आत्मगौरव और सांस्कृतिक स्वाभिमान के शिखर पर पहुंचा सकता है।

  • श्रुति ग्रंथ: हिंदू धर्म का दिव्य आधार

    श्रुति ग्रंथ: हिंदू धर्म का दिव्य आधार

    हिंदू धर्म के विशाल और गहन साहित्यिक संग्रह में श्रुति ग्रंथों का स्थान सर्वोपरि है। ‘श्रुति’ का अर्थ है – “जो सुना गया है”। ये ग्रंथ ईश्वर द्वारा ऋषियों को श्रवण द्वारा प्राप्त हुए माने जाते हैं। ये न केवल हिंदू धर्म के सबसे पुराने और मूल ग्रंथ हैं, बल्कि वेदांत और भारतीय दर्शन की नींव भी इन्हीं ग्रंथों पर टिकी हुई है।


    श्रुति ग्रंथों की विशेषता

    श्रुति ग्रंथों को मानव-रचित नहीं माना जाता, बल्कि यह विश्वास है कि ऋषियों ने ध्यान और तपस्या के माध्यम से इन दिव्य वचनों को ‘श्रवण’ द्वारा प्राप्त किया और पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से सुरक्षित रखा। यही कारण है कि इन्हें अनादि और अपौरुषेय (जिसका कोई मानव रचयिता न हो) कहा गया है।


    श्रुति ग्रंथों का मुख्य भाग – चार वेद

    हिंदू धर्म के श्रुति ग्रंथों में मुख्यतः चार वेद सम्मिलित हैं। इन वेदों को ‘ज्ञान का मूल स्रोत’ माना जाता है।

    1. ऋग्वेद

    • सबसे प्राचीन वेद (लगभग 1500–1200 ई.पू.)
    • इसमें 1,028 सूक्त हैं जो विभिन्न देवताओं की स्तुति में रचे गए हैं – जैसे अग्नि, इंद्र, वरुण, सोम।
    • यह वेद ज्ञान और मंत्र का स्रोत है।

    2. सामवेद

    • इसमें ऋग्वेद के मंत्रों को संगीतबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है।
    • यज्ञों और अनुष्ठानों में गाए जाने वाले मंत्रों का संग्रह।
    • भारतीय शास्त्रीय संगीत की जड़ें भी इसी वेद से जुड़ी हैं।

    3. यजुर्वेद

    • यह वेद कर्मकांडों और यज्ञ विधियों का विवरण देता है।
    • दो शाखाएं:
      • कृष्ण यजुर्वेद – मंत्र और गद्य एकसाथ।
      • शुक्ल यजुर्वेद – मंत्र और गद्य पृथक।

    4. अथर्ववेद

    • घरेलू जीवन, चिकित्सा, जड़ी-बूटियाँ, तंत्र-मंत्र, और आयुर्वेद से संबंधित सूक्त।
    • यह वेद आम जनजीवन के साथ सीधा संवाद स्थापित करता है।

    हर वेद के चार भाग

    हर वेद में चार स्तर होते हैं, जो क्रमशः कर्म से ज्ञान की ओर बढ़ते हैं:

    1. संहिता – मूल मंत्रों का संग्रह।
    2. ब्राह्मण – यज्ञ और कर्मकांड की विधि।
    3. आरण्यक – वनवासी तपस्वियों द्वारा चिंतन और दर्शन।
    4. उपनिषद – तत्वज्ञान, आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष पर गहन विमर्श।

    उपनिषद: श्रुति का दार्शनिक पक्ष

    उपनिषदों को ‘वेदांत’ भी कहा जाता है क्योंकि वे वेदों के अंतिम भाग हैं। इनका विषय है:

    • आत्मा क्या है?
    • ब्रह्म (परमात्मा) क्या है?
    • मोक्ष कैसे प्राप्त करें?

    कुछ प्रमुख उपनिषद:

    • ईशावास्य उपनिषद
    • केन उपनिषद
    • छांदोग्य उपनिषद
    • बृहदारण्यक उपनिषद
    • कठ उपनिषद

    उपनिषदों की संख्या 108 से अधिक मानी जाती है, लेकिन 11 को प्रमुख और प्रामाणिक माना जाता है।


    श्रुति बनाम स्मृति

    • श्रुति: दिव्य, शाश्वत, अपरिवर्तनीय (जैसे वेद, उपनिषद)।
    • स्मृति: मानवीय अनुभव और परंपरा पर आधारित (जैसे मनुस्मृति, महाभारत)।

    श्रुति का स्थान हिंदू धर्म में सर्वोपरि है – यह मूल है, बाकी सब व्याख्या।


    श्रुति की मौखिक परंपरा: एक अद्भुत चमत्कार

    वेदों को हजारों वर्षों तक मौखिक रूप से याद रखा गया, जिसमें उच्चारण की शुद्धता और छंद की संरचना अक्षुण्ण रही। यह कार्य विशेष पाठ विधियों द्वारा हुआ:

    • पदपाठ
    • क्रमपाठ
    • जटा पाठ
    • घन पाठ

    यह अद्भुत स्मृति परंपरा विश्व की सबसे पुरानी और सबसे सटीक मौखिक परंपरा मानी जाती है।


    निष्कर्ष

    श्रुति ग्रंथ केवल धार्मिक पुस्तकें नहीं हैं – वे भारतीय संस्कृति, दर्शन, विज्ञान, संगीत और जीवन दर्शन का मूल स्रोत हैं। इन ग्रंथों की दिव्यता और गहराई आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी हजारों वर्ष पूर्व थी।

    श्रुति हमें सिखाती है कि ध्यान, ज्ञान और आत्मा के माध्यम से ईश्वर से सीधा संबंध स्थापित किया जा सकता है। यह केवल ग्रंथों का अध्ययन नहीं, बल्कि जीवन की साधना है।

  • हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ: एक विस्तृत परिचय

    हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ: एक विस्तृत परिचय

    हिंदू धर्म विश्व के सबसे प्राचीन और विविध धार्मिक परंपराओं में से एक है, जिसकी जड़ें हजारों वर्षों पुरानी हैं। इस धर्म की गहराई और व्यापकता को समझने के लिए इसके पवित्र ग्रंथों का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। हिंदू धर्म के ग्रंथ दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित हैं – श्रुति (जो सुनी गई) और स्मृति (जो स्मरण में रखी गई)। आइए इन ग्रंथों को विस्तार से समझें।


    1. श्रुति (श्रवण परंपरा के ग्रंथ)

    श्रुति ग्रंथ लिखे नहीं बल्कि ऋषियों द्वारा सुने गए और एक पीढ़ी ने दूसरी को बताया।

    श्रुति ग्रंथ सबसे प्राचीन और दिव्य माने जाते हैं, जिन्हें ऋषियों ने ईश्वर की प्रेरणा से “सुना” और पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से संजोया। इन ग्रंथों को सर्वोच्च सत्य का वाहक माना गया है।

    वेद – चार मूल ग्रंथ

    1. ऋग्वेद
      • सबसे प्राचीन वेद।
      • इसमें 1,028 सूक्त (स्तोत्र) हैं जो अग्नि, इंद्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुति में हैं।
    2. सामवेद
      • इसमें ऋग्वेद के मंत्रों को संगीतबद्ध किया गया है।
      • यह यज्ञों में गाया जाने वाला वेद है।
    3. यजुर्वेद
      • यज्ञों में प्रयोग होने वाले कर्मकांड और मंत्रों का संग्रह।
      • यह वेद दो शाखाओं में विभाजित है – शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद।
    4. अथर्ववेद
      • जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से संबंधित – जड़ी-बूटियाँ, रोगों की चिकित्सा, तंत्र-मंत्र आदि।
      • इसमें सामाजिक और घरेलू जीवन की झलक मिलती है।

    वेदों के अंग (प्रत्येक वेद में चार भाग)

    • संहिता – मूल मंत्र।
    • ब्राह्मण – यज्ञ-विधि और कर्मकांड की व्याख्या।
    • आरण्यक – तपस्वियों द्वारा जंगलों में किया गया चिंतन।
    • उपनिषद – आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष पर गहन दार्शनिक विचार।

    2. स्मृति (स्मरण परंपरा के ग्रंथ)

    स्मृति ग्रंथ मानव द्वारा रचित माने जाते हैं लेकिन फिर भी अत्यंत पवित्र और मार्गदर्शक हैं। इनमें धर्म, आचरण, कथा और भक्ति का समावेश होता है।

    इतिहास ग्रंथ (महाकाव्य)

    1. रामायण
      • लेखक: महर्षि वाल्मीकि।
      • श्रीराम के जीवन, आदर्श, वनवास, रावण वध और अयोध्या वापसी की गाथा।
    2. महाभारत
      • लेखक: महर्षि वेदव्यास।
      • कौरव-पांडव युद्ध की कथा।
      • इसमें भगवद गीता शामिल है – भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया अमर उपदेश।

    पुराण (18 मुख्य और कई उपपुराण)

    • पुराणों में सृष्टि, देवताओं की कथाएँ, अवतार, धर्म और भक्ति का वर्णन है।
    • प्रमुख पुराण:
      • भागवत पुराण (कृष्ण भक्ति पर केंद्रित)
      • विष्णु पुराण, शिव पुराण, मार्कण्डेय पुराण, देवी भागवत, आदि।

    धर्मशास्त्र

    • जीवन के विभिन्न चरणों में धर्म, कर्तव्यों और आचार का निर्धारण।
    • प्रमुख ग्रंथ:
      • मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति

    3. वेदांग – वेदों के सहायक ग्रंथ

    वेदों के गूढ़ ज्ञान को समझने के लिए इन 6 वेदांगों की रचना हुई:

    1. शिक्षा (उच्चारण)
    2. व्याकरण (संस्कृत भाषा का व्याकरण – जैसे पाणिनि का अष्टाध्यायी)
    3. निरुक्त (शब्दों की व्याख्या)
    4. छंद (वेदों की छंद रचना)
    5. कल्प (यज्ञ की विधि)
    6. ज्योतिष (गणना और काल निर्धारण)

    4. दर्शन शास्त्र – भारतीय दर्शन के छह प्रमुख मत

    हिंदू दर्शन की गहराई छह ‘आस्तिक’ (वेद मान्य) दर्शनों में व्यक्त की गई है:

    1. न्याय – तर्क और प्रमाण पर आधारित।
    2. वैशेषिक – पदार्थों और तत्वों का वर्गीकरण।
    3. सांख्य – प्रकृति और पुरुष का द्वैत।
    4. योग – पतंजलि योगसूत्र आधारित आत्मसाधना।
    5. पूर्व मीमांसा – कर्मकांड और यज्ञ की महत्ता।
    6. वेदांत (उत्तर मीमांसा) – उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों पर आधारित – अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि में विभाजन।

    5. आगम और तंत्र ग्रंथ

    विशेषतः शैव, वैष्णव और शाक्त परंपराओं में पूजन, ध्यान, मंदिर निर्माण, मूर्ति स्थापना आदि के लिए आगम और तंत्र ग्रंथों का महत्व है।


    6. भक्ति साहित्य (प्रादेशिक भाषाओं में)

    हिंदू धर्म के विभिन्न संतों और भक्तों ने सरल भाषा में अद्वितीय भक्ति रचनाएँ कीं:

    • रामचरितमानस – गोस्वामी तुलसीदास (अवधी)
    • सूरदास, मीरा, कबीर, तिरुवल्लुवर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम आदि।

    हिंदू धर्म की विशेषता इसकी ग्रंथ-संपदा में निहित है – जहाँ वेदों की अमूर्त दिव्यता है, वहीं पुराणों और महाकाव्यों में भक्तिभाव और नैतिकता की झलक। यह समृद्ध साहित्य धर्म, दर्शन, आचरण, पूजा-पद्धति और मोक्ष तक के सभी आयामों को छूता है।

  • नारद मुनि: पहले पत्रकार, देवदूत और हमारे संवादों में अनजाने अपमान का शिकार

    नारद मुनि: पहले पत्रकार, देवदूत और हमारे संवादों में अनजाने अपमान का शिकार

    जब भी हम किसी व्यक्ति को “चुगली करने वाला” कहना चाहते हैं, तो मजाक में या तंज में हम अकसर कहते हैं, “कहीं तुम नारद मुनि तो नहीं?” या “नारद मत बनो”। यह संवाद आम हो चुका है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जिसे हम उपहास में लेते हैं, वह असल में एक महान ऋषि और देवताओं के प्रमुख दूत हैं, देवर्षि नारद?

    नारद मुनि थे विश्व के पहले पत्रकार थे। ऋषि नारद को ‘देवों के संवादवाहक’ के रूप में जाना जाता है। वे तीनों लोकों में स्वतंत्र रूप से यात्रा करते थे, स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल, और जो कुछ उन्होंने देखा, सुना, जाना, वह निर्भीक रूप से सही व्यक्ति तक पहुँचाया। यही तो पत्रकारिता का मूल है: सत्य जानना, तथ्य जुटाना, और उसे निष्पक्ष रूप से संबंधित पक्ष तक पहुँचाना।

    वीसके फाउंडेशन जयपुर द्वारा नारद मुनि जयंती पर पत्रकार सम्मान समारोह का आयोजन किया गया।

    नारद मुनि ना केवल देवताओं को घटनाओं की जानकारी देते थे, बल्कि कई बार उन्होंने प्रभावशाली नीतिगत निर्णयों का मार्गदर्शन भी किया, जैसे:

    • प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु के कथा में नारद ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने गर्भ में ही प्रह्लाद को विष्णु-भक्ति का बीज दिया।
    • रामायण में नारद के संवादों के माध्यम से भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर श्रीराम के रूप में अवतार लिया।
    • महाभारत में भी उन्होंने कई बार धर्म के मार्ग पर संकेत देकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    यह धारणा कि नारद लड़वाने का काम करते थे बहुत सतही और गलत है। उन्होंने जो कहा वह सूचना थी गुप्तचरी नहीं। उनका उद्देश्य हमेशा था कि:

    1. सत्य सामने आए
    2. धर्म की रक्षा हो
    3. देवताओं या मानवों को चेतावनी मिल सके

    उदाहरण के लिए जब उन्होंने किसी असुर की योजनाओं की जानकारी देवताओं को दी वह चुगली नहीं थी बल्कि सुरक्षा चेतावनी थी।
    लेकिन आज की आम भाषा में नारद मत बनो कहना एक तरह से धार्मिक और सांस्कृतिक अवमानना है।

    नारद को भड़काने वाला मान लेना भी गलत है। वे ऐसी जानकारी साझा करते थे जो पहले से चल रही समस्याओं को सतह पर लाती थी।
    ध्यान दीजिए, सत्य को उजागर करना उकसाना नहीं होता बल्कि जिम्मेदार चेतावनी देना होता है।

    हमने अनजाने में नारद जैसे ऋषि को मजाक और अपमान का पात्र बना दिया है। नारद मत बनो, हर जगह टांग अड़ाते हो, सबको भड़काते हो, ये वाक्य अब आम हैं, परन्तु ये एक पूजनीय देवता का अनादर हैं। हमें यह समझना होगा कि जो व्यक्ति ज्ञान, संगीत, और संवाद के प्रतीक हैं, उन्हें अपमानजनक रूप में चित्रित करना ना केवल अनुचित, बल्कि सांस्कृतिक रूप से नुकसानदेह भी है।

    देवर्षि नारद ने ही नारद भक्ति सूत्र जैसे ग्रंथ की रचना की जो आज भी भक्ति मार्ग का मूल आधार है।

    टीवी धारावाहिकों और फिल्मों ने भी नारद जी को कई बार हास्य पात्र की तरह प्रस्तुत किया। हाथ में वीणा, नारायण नारायण, कहकर आते और सबको उलझा कर चले जाते। यह चित्रण आधा-सच और गलत-संदेश देता है। वास्तव में नारद जी वेद, उपनिषद, भक्ति-योग के प्रचारक थे और उन्होंने नारद भक्ति सूत्र जैसे ग्रंथ की रचना की, जो आज भी भक्ति मार्ग का मूल आधार है।

    अब समय आ गया है कि हम नारद जी को पहले संवाददाता, पहले संचार विशेषज्ञ, और धार्मिक चेतना के अग्रदूत के रूप में सम्मान दें। नारद मत बनो जैसे वाक्यों को हम अपनी भाषा से हटाएँ और उनके स्थान पर सत्य का संचार करो जैसे विचारों को प्रोत्साहित करें।

    क्योंकि नारद न सिर्फ़ देवता थे, वो सत्यों के सेतु थे, जो हमें धर्म, विवेक और चेतना की ओर ले जाते हैं। उनका सम्मान करना हमारी संस्कृति की गरिमा है।

    नारायण नारायण।

  • आइए जाने सनातन एकता के दूत जगद्गुरु आदि शंकराचार्य को।

    आइए जाने सनातन एकता के दूत जगद्गुरु आदि शंकराचार्य को।

    आदि शंकराचार्य केवल एक संत नहीं थे, वे समय से परे एक चेतना थे। उनका जन्म भले ही एक विशिष्ट कालखंड में हुआ, लेकिन उनका कार्य और विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना तब था।

    भारत, एक ऐसा देश जो असंख्य भाषाओं, मतों और परंपराओं में विभाजित है, वहां उन्होंने अद्वैत वेदांत की दृष्टि से सबको जोड़ा। उन्होंने बताया कि सत्य केवल एक है, और उसके अनुभव का मार्ग आत्म-ज्ञान है। उनके लिए धर्म कोई ढांचा नहीं था, वह एक यात्रा थी, भीतर की यात्रा।

    जब वे कहते हैं, “ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या”, तो वे संसार को नकार नहीं रहे थे। वे केवल यह समझा रहे थे कि इस संसार में जो भी बदलता है, वह स्थायी नहीं है। जो भीतर है, वह ही शाश्वत है। यह एक विचार मात्र नहीं, अनुभव की बात है।

    उन्होंने न केवल ग्रंथों की व्याख्या की, बल्कि चार मठों की स्थापना करके इस ज्ञान को भारत के चारों कोनों में फैलाया, उत्तर में ज्योतिर्मठ (उत्तरकाशी), दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में पुरी और पश्चिम में द्वारका। यह केवल धार्मिक संस्थाएं नहीं थीं, ये आत्मबोध की चैतन्य शृंखलाएं थीं।

    केरल के कालडी में आदिशंकराचार्य का जन्मस्थान

    शंकराचार्य का जीवन केवल साधना या ज्ञान तक सीमित नहीं था, उन्होंने तर्क से, संवाद से, यात्रा से, और सबसे बड़ी बात, करुणा से काम लिया। उन्होंने कभी किसी पर अपना मत नहीं थोपा, बल्कि प्रश्न करने और अनुभव से जानने को प्रेरित किया।

    आज जब हम धर्म को अक्सर बाहरी प्रतीकों, वाद-विवाद या राजनीतिक खांचों में देखते हैं, तब शंकराचार्य का दर्शन हमें भीतर लौटने का निमंत्रण देता है।

    वे हमें यह याद दिलाते हैं कि धर्म, राष्ट्र और जीवन, इन सबकी गहराई में एकता है। और जब हम भीतर से उस एकता को अनुभव कर लेते हैं, तब कोई बाहरी विभाजन टिक नहीं सकता।

    यह लेख केवल जानकारी नहीं, एक स्मरण है।
    कि हमारी पहचान हमारे विचारों से नहीं, हमारे अनुभव से बनती है। और अनुभव का स्रोत, आत्मा है। जो शंकराचार्य के शब्दों में, न कोई है, न नहीं है, वह केवल है। सत्। चित्। आनंद।

    “अपने भीतर झाँको। वहाँ न कोई संप्रदाय है, न मतभेद — बस एक ही सत्य है, जो सबमें समान रूप से विद्यमान है।” – स्मरण शंकराचार्य का

  • अक्षय तृतीया: अक्षय पुण्य का पावन पर्व

    अक्षय तृतीया: अक्षय पुण्य का पावन पर्व

    अक्षय तृतीया, जिसे “अक्ती” या “आखा तीज़” भी कहा जाता है, हिंदू पंचांग के अनुसार वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है। ‘अक्षय’ शब्द का अर्थ होता है — ‘जिसका कभी क्षय न हो।’ यानी इस दिन किया गया कोई भी शुभ कार्य, दान, या पूजा-पाठ कभी व्यर्थ नहीं जाता। यह दिन सौभाग्य, समृद्धि और स्थायी फल प्रदान करने वाला माना जाता है।

    धार्मिक महत्त्व:

    1. त्रेतायुग की शुरुआत: मान्यता है कि इसी दिन त्रेतायुग का आरंभ हुआ था, जब भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार लिया था।
    2. गंगा अवतरण: इसी दिन गंगा धरती पर अवतरित हुई थी, जो मोक्षदायिनी मानी जाती है।
    3. महाभारत और अक्षय पात्र: वनवास के समय पांडवों को भगवान सूर्य ने अक्षय पात्र दिया था, जो कभी खाली नहीं होता था। यह वरदान इसी दिन प्राप्त हुआ था।
    4. कुबेर और लक्ष्मी पूजा: इस दिन भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी और धन के देवता कुबेर की विशेष पूजा का विधान है।

    पूजा विधि:

    प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें।

    घर के मंदिर में भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा करें।

    तांबे या चांदी के पात्र में जल, अक्षत (चावल), तुलसी, फूल और तुलसी पत्र अर्पित करें।

    पंचामृत से अभिषेक कर दीप-धूप दिखाएं।

    शुद्ध घी का दीपक जलाएं और “ॐ श्री लक्ष्म्यै नमः” या “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जाप करें।

    गरीबों को अन्न, वस्त्र, जल, स्वर्ण, छाता, पंखा, और शक्कर का दान करें।

    पीपल के वृक्ष की पूजा करना भी शुभ माना जाता है।

    क्या करें और क्या न करें:

    क्या करें: सोना, चांदी, जमीन, वाहन, या नया व्यापार खरीदना शुभ माना जाता है।

    क्या न करें: क्रोध, कटु भाषा, निंदा और अपवित्रता से दूर रहें।

    आज के संदर्भ में:

    अक्षय तृतीया न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी एक महत्वपूर्ण पर्व बन चुका है। इस दिन सोना खरीदना अब परंपरा का हिस्सा बन गया है, क्योंकि इसे समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। विवाह के लिए भी यह अबूझ मुहूर्त होता है — यानी बिना किसी ज्योतिषीय सलाह के भी विवाह किए जा सकते हैं।

  • चार धाम यात्रा 2025: संपूर्ण मार्गदर्शिका – यात्रा विकल्प, मौसम, सुरक्षा और सुझाव

    चार धाम यात्रा 2025: संपूर्ण मार्गदर्शिका – यात्रा विकल्प, मौसम, सुरक्षा और सुझाव

    चार धाम यात्रा (यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ) भारत की सबसे पवित्र यात्राओं में से एक है। यह यात्रा हर साल लाखों श्रद्धालुओं द्वारा की जाती है, और 2025 में भी बड़ी संख्या में लोग उत्तराखंड की इन पावन स्थलों की ओर प्रस्थान करेंगे। यदि आप राजस्थान के बहरोड़ से यात्रा की योजना बना रहे हैं, तो यह लेख आपके लिए संपूर्ण मार्गदर्शिका है।


    1. यात्रा कैसे करें?

    रेलवे द्वारा यात्रा:

    • निकटतम रेलवे स्टेशन: हरिद्वार जंक्शन और ऋषिकेश
    • बहरोड़ से विकल्प:
      • आप अलवर जंक्शन या जयपुर जंक्शन से हरिद्वार या ऋषिकेश तक ट्रेन ले सकते हैं।
      • वहाँ से बस या टैक्सी से आगे की यात्रा कर सकते हैं।

    बस से यात्रा:

    • सरकारी बस सेवा: RSRTC और UTC की बसें हरिद्वार व ऋषिकेश के लिए उपलब्ध हैं।
    • प्राइवेट बसें: कई निजी कंपनियाँ राजस्थान से सीधी बस सेवा देती हैं।
    • स्थानीय बसें: हरिद्वार/ऋषिकेश से चार धाम के लिए लोकल बसें और शेयर टैक्सी चलती हैं।

    कार द्वारा यात्रा:

    • स्वयं ड्राइव:
      • बहरोड़ से हरिद्वार तक लगभग 400 किलोमीटर का रास्ता है, जो 7-8 घंटे में तय किया जा सकता है।
      • इसके बाद:
        • यमुनोत्री – 220 किमी
        • गंगोत्री – 290 किमी
        • केदारनाथ – 250 किमी
        • बद्रीनाथ – 320 किमी
    • हायर की गई कार: अनुभवी ड्राइवर के साथ गाड़ी किराए पर लेना सुरक्षित होता है।

    2. मौसम की जानकारी

    • मई-जून: सबसे उपयुक्त समय, तापमान 10°C से 20°C के बीच।
    • जुलाई-सितंबर: भारी बारिश और भूस्खलन का खतरा रहता है, यात्रा से बचें।
    • अक्टूबर-नवंबर: ठंड का आगमन, कभी-कभी बर्फबारी। लेकिन मौसम साफ होता है।

    3. सुरक्षा और सावधानियाँ

    • स्वास्थ्य:
      • यात्रा से पहले चेकअप करवा लें।
      • दवाइयाँ और फर्स्ट एड किट साथ रखें।
    • ऊँचाई की समस्या:
      • धीरे-धीरे ऊँचाई पर जाएं, पानी खूब पिएं, ज्यादा मेहनत न करें।
    • भू-स्खलन से सतर्कता:
      • बारिश के मौसम में यात्रा न करें।
      • मौसम की जानकारी लेते रहें।
    • आपातकालीन संपर्क:
      • स्थानीय पुलिस, अस्पताल और प्रशासन के नंबर अपने पास रखें।

    4. जरूरी सुझाव

    • पंजीकरण:
      • उत्तराखंड सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर यात्रा का पंजीकरण अनिवार्य है।
    • आवास:
      • यात्रा सीजन में होटल व धर्मशालाएं भर जाती हैं, पहले से बुक करें।
    • जरूरी सामान:
      • गर्म कपड़े, रेनकोट, मजबूत जूते, टॉर्च, दवाइयाँ, पहचान पत्र साथ रखें।
    • आचार-विचार:
      • मंदिरों में अनुशासन बनाए रखें, स्थानीय परंपराओं का सम्मान करें।


    चार धाम यात्रा केवल धार्मिक नहीं, एक आत्मिक और मानसिक अनुभव है। अगर आप पहले से योजना बनाकर चलते हैं तो यह यात्रा आपको जीवनभर याद रहेगी। उत्तराखंड की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए सतर्क रहना अत्यंत आवश्यक है।

  • परशुराम जयंती पर देवनानी का संदेश: सत्य और न्याय के पथ पर चलने की प्रेरणा लें

    परशुराम जयंती पर देवनानी का संदेश: सत्य और न्याय के पथ पर चलने की प्रेरणा लें

    जयपुर, 28 अप्रैल 2025। भगवान परशुराम जयंती के पावन अवसर पर विधानसभा अध्यक्ष श्री वासुदेव देवनानी ने जयपुर के परशुराम सर्किल पर आयोजित भव्य कार्यक्रम में भाग लिया और प्रदेशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं दीं। उन्होंने भगवान परशुराम के जीवन को सत्य, धर्म और न्याय का प्रतीक बताया और उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर समाज में नैतिकता व शांति की स्थापना की अपील की।

    श्री देवनानी ने कहा, “भगवान परशुराम ने अपने साहस और कर्तव्यपरायणता से समाज में व्याप्त अनीति का विरोध करते हुए धर्म की रक्षा की। उनका जीवन आज भी हमें यह सिखाता है कि जब अन्याय और अत्याचार फैलता है, तब उसे समाप्त करने के लिए हमें अपने दायित्वों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।”

    उन्होंने आगे कहा कि भगवान परशुराम न केवल एक महान योद्धा थे बल्कि एक गहरे विचारक भी थे जिन्होंने अपने पराक्रम का उपयोग समाज में व्याप्त संकटों से निपटने में किया। आज जब समाज में अनेक चुनौतियाँ हैं, तो हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेकर समानता, शांति और भाईचारे को मजबूत करना चाहिए।

    कार्यक्रम में श्री देवनानी ने उपस्थित जनसमूह से आह्वान किया कि परशुराम जयंती को केवल एक पर्व के रूप में नहीं, बल्कि एक संकल्प दिवस के रूप में मनाएं। उन्होंने कहा कि इस दिन हमें समाज में भलाई के कार्यों को बढ़ावा देने, हर स्तर पर न्याय और समानता की स्थापना तथा सभी वर्गों के बीच भाईचारे को सशक्त करने की दिशा में काम करना चाहिए।

    विधानसभा अध्यक्ष ने यह भी कहा कि भगवान परशुराम के आदर्श आज भी हर वर्ग के लिए प्रासंगिक हैं और उनके सिद्धांत हमें यह समझाते हैं कि केवल अधिकार नहीं, बल्कि अपने कर्तव्यों की समझ भी समाज निर्माण के लिए आवश्यक है।

    अंत में श्री देवनानी ने सभी को भगवान परशुराम की जयंती की शुभकामनाएं देते हुए उनके आशीर्वाद की कामना की।

  • गीता और नाट्यशास्त्र यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल

    गीता और नाट्यशास्त्र यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल

    भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को एक बार फिर वैश्विक मंच पर सम्मान मिला है। श्रीमद्भगवद्गीता और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की पांडुलिपियों को यूनेस्को के प्रतिष्ठित मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल किया गया है। यह उपलब्धि न केवल भारत के लिए, बल्कि विश्व भर के उन लोगों के लिए गर्व का विषय है, जो भारतीय दर्शन और कला के प्रशंसक हैं।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस ऐतिहासिक क्षण को “विश्व भर के प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व का क्षण” करार देते हुए कहा, “गीता और नाट्यशास्त्र का यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल होना हमारी कालजयी बुद्धिमत्ता और समृद्ध संस्कृति की वैश्विक मान्यता है। इन ग्रंथों ने सदियों से सभ्यता और चेतना को पोषित किया है। इनकी अंतर्दृष्टि आज भी विश्व को प्रेरित करती है।

    “गीता और नाट्यशास्त्र: भारतीय संस्कृति के रत्नश्रीमद्भगवद्गीता, जो महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है, भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का दार्शनिक संवाद है। यह ग्रंथ जीवन, कर्तव्य, धर्म और मोक्ष के गहन सवालों का जवाब देता है। 80 से अधिक भाषाओं में अनुवादित यह ग्रंथ विश्व भर में आध्यात्मिक और दार्शनिक मार्गदर्शन का स्रोत रहा है।

    वहीं, भरत मुनि का नाट्यशास्त्र भारतीय प्रदर्शन कला का आधारभूत ग्रंथ है। इसे ‘गांधर्ववेद’ भी कहा जाता है, जो नृत्य, संगीत, अभिनय और रंगमंच के सिद्धांतों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। इस ग्रंथ ने न केवल भारतीय कला को आकार दिया, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की सांस्कृतिक परंपराओं को भी प्रभावित किया।

    मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर मानवता की सबसे मूल्यवान बौद्धिक विरासत को संरक्षित करने का एक प्रयास है। इस रजिस्टर में किताबें, पांडुलिपियां, नक्शे, तस्वीरें, ध्वनि या वीडियो रिकॉर्डिंग जैसी दस्तावेजी धरोहर शामिल की जाती हैं। 17 अप्रैल को यूनेस्को ने 74 नई दस्तावेजी धरोहरों को इस रजिस्टर में जोड़ा, जिससे कुल संग्रह 570 तक पहुंच गया। इनमें गीता और नाट्यशास्त्र के साथ-साथ चार्ल्स डार्विन के कार्य, जेनेवा कन्वेंशन और संयुक्त राष्ट्र के यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स जैसे दस्तावेज भी शामिल हैं।

    संस्कृति और पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने इसे “भारत की सभ्यतागत विरासत के लिए ऐतिहासिक क्षण” बताया। उन्होंने कहा, “हमारे देश से अब इस अंतरराष्ट्रीय रजिस्टर में 14 प्रविष्टियां हैं।” केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी इस उपलब्धि की सराहना करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने अपनी सांस्कृतिक बुद्धिमत्ता को वैश्विक कल्याण के केंद्र में स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयास किए हैं।

  • हिन्दू नववर्ष 2025: सृष्टि की रचना से विक्रम संवत तक, जानें मार्च में कब मनाया जाएगा नया साल

    हिन्दू नववर्ष 2025: सृष्टि की रचना से विक्रम संवत तक, जानें मार्च में कब मनाया जाएगा नया साल

    हिन्दू नववर्ष भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण अवसर है, जिसे चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन मनाया जाता है। यह दिन न केवल नए वर्ष की शुरुआत का प्रतीक है, बल्कि इसे विक्रम संवत, शक संवत और विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है।

    हिन्दू नववर्ष 2025 की तिथि

    वर्ष 2025 में हिन्दू नववर्ष की शुरुआत 30 मार्च (रविवार) को होगी। इस दिन से विक्रम संवत 2082 और शक संवत 1947 का शुभारंभ होगा।

    हिन्दू नववर्ष का महत्व

    1. सृष्टि की रचना का दिन: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि की रचना की थी।
    2. रामराज्याभिषेक: कई ग्रंथों के अनुसार, भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था।
    3. विक्रम संवत की शुरुआत: राजा विक्रमादित्य ने इसी दिन विक्रम संवत की स्थापना की थी, जो आज भी भारत में प्रचलित है।
    4. नया फसल चक्र: इस समय रबी की फसल कटने लगती है, जिसे किसान नए वर्ष के आगमन के रूप में देखते हैं।

    हिन्दू नववर्ष के क्षेत्रीय नाम

    भारत के विभिन्न हिस्सों में हिन्दू नववर्ष को अलग-अलग नामों से मनाया जाता है:

    • गुड़ी पड़वा – महाराष्ट्र
    • उगादी – आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक
    • चेटी चंड – सिंधी समुदाय
    • विषु – केरल
    • पोइला बैशाख – बंगाल
    • बैसाखी – पंजाब
    • पुथांडु – तमिलनाडु

    कैसे मनाया जाता है हिन्दू नववर्ष?

    पूजा-पाठ और भजन-कीर्तन – घरों और मंदिरों में विशेष पूजा की जाती है।
    गुड़ी या ध्वज फहराना – महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा पर गुड़ी फहराने की परंपरा है।
    विशेष पकवान बनाना – इस दिन घरों में मीठे और पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं।
    सकारात्मक संकल्प लेना – लोग नए साल की नई शुरुआत के लिए संकल्प लेते हैं।

    हिन्दू नववर्ष सिर्फ एक तिथि नहीं, बल्कि भारतीय परंपरा, संस्कृति और अध्यात्म का प्रतीक है। यह नवचेतना और उल्लास का पर्व है, जो हमें न केवल अपनी जड़ों से जोड़ता है, बल्कि एक नए उत्साह और उमंग के साथ जीवन को आगे बढ़ाने की प्रेरणा भी देता है।

    आपको और आपके परिवार को हिन्दू नववर्ष 2025 की हार्दिक शुभकामनाएं!

  • श्री राम नवमी: भगवान राम के जन्मोत्सव का पावन पर्व

    श्री राम नवमी: भगवान राम के जन्मोत्सव का पावन पर्व

    श्री राम नवमी का त्यौहार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाया जाता है, जो अप्रैल-मई में आता है। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन मर्यादा-पुरूषोत्तम भगवान श्री राम जी का जन्म हुआ था।

    श्री राम नवमी का पर्व पिछले कई हजार सालों से मनाया जा रहा है। इस दिन भगवान राम के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में पूजा-अर्चना की जाती है और व्रत रखा जाता है।

    रामायण के अनुसार अयोध्या के राजा दशरथ की तीन पत्नियाँ थीं, लेकिन बहुत समय तक कोई भी राजा दशरथ को सन्तान का सुख नहीं दे पायी थीं। पुत्र प्राप्ति के लिए राजा दशरथ ने ऋषि वशिष्ठ के निर्देश पर पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। यज्ञ के बाद महर्षि ऋष्यश्रृंग ने दशरथ की तीनों पत्नियों को खीर खाने को दी, जिसके बाद तीनों रानियाँ गर्भवती हो गयीं।

    ठीक 9 महीनों बाद राजा दशरथ की सबसे बड़ी रानी कौशल्या ने श्रीराम को, कैकयी ने श्रीभरत को और सुमित्रा ने जुड़वा बच्चों श्रीलक्ष्मण और श्रीशत्रुघ्न को जन्म दिया। भगवान श्रीराम का जन्म धरती पर दुष्ट प्राणियों का संहार करने के लिए हुआ था।

    इस साल 2024 में रामनवमी 17 अप्रैल को धूमधाम और श्रद्धा से बनाई जायेगी।