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  • अनेकता में एकता से कही ज्यादा बड़ा है भारत का विचार और उसकी आत्मा

    अनेकता में एकता से कही ज्यादा बड़ा है भारत का विचार और उसकी आत्मा

    “कोउ नृप होई, हमहि का हानी”, यह भाव तुलसी के रामराज्य का है। शासन कोई भी हो, जब तक संस्कृति जीवित है, समाज अखंड है।

    भारत की आत्मा कभी ‘एक-समानता’ नहीं मांगती, वह ‘एकता’ मांगती है।
    यहाँ काशी भी है, कन्याकुमारी भी। गुरु नानक का शब्द भी गूंजता है, और कबीर की उलटबांसी भी। राम भी पूज्य हैं, और रहमान भी सम्माननीय। यही भारत है, जहाँ भिन्नता में भी आत्मिक एकता की डोर छिपी होती है।

    विविधता का अर्थ अलगाव नहीं

    कई लोग सोचते हैं कि एकता तभी संभव है जब सब एक जैसे बन जाएं, एक भाषा बोलें, एक सोच रखें, एक रंग-रूप रखें।
    पर भारतीय दर्शन कहता है:
    “To be different is not to be separate.”

    मतलब, भिन्न होना, अलग होना नहीं है। यही तो भारत का दर्शन है, “वसुधैव कुटुम्बकम्”, जहाँ हर व्यक्ति, हर परंपरा, हर विचारधारा को अपनी जगह मिलती है।

    जैसे:

    • बांसुरी और मृदंग की ध्वनि अलग है, पर राग एक ही गूंजता है।
    • रंग बिरंगे फूल जब एक माला में गूंथे जाएं, तो वह माला सुंदर बनती है।
      ऐसे ही, भारत तब सुंदर लगता है जब उसमें हर भाषा, हर परंपरा, हर पंथ का स्थान हो।

    संघ का दृष्टिकोण:

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा भी यहीं कहती है: “हिंदू कोई संकीर्ण धर्म नहीं, एक जीवन-पद्धति है।” यह जीवन-पद्धति विविधता को समाहित करती है। संघ जब ‘हिंदुत्व’ कहता है, तो वह इसी संस्कृति की बात करता है, जहाँ राष्ट्र सर्वोपरि है, और समाज स्व-प्रेरणा से एकसूत्र में बंधा हो।

    एकता का मार्ग संस्कार से जाता है, बल से नहीं

    कभी-कभी किसी विषय पर अनुशासन की आवश्यकता होती है। पर उसका उपाय बल (force) नहीं, बल्कि प्रबोधन होता है, समझाना, संस्कार देना, शिक्षित करना।

    “संस्कार से उन्नति करो”, यही संघ का भी मूल मंत्र रहा है। शाखाओं में यही सिखाया जाता है कि समाज जब जागरूक होगा, संस्कारित होगा, तभी वह सशक्त और एकजुट होगा।

    संविधान और एकात्मता

    हमारे संविधान की प्रस्तावना में “राष्ट्रीय एकता” का सूत्र दिया गया है। यह केवल कानूनी वाक्य नहीं, यह भारतीय सभ्यता का निचोड़ है।

    अंत में

    “हिन्दुत्व ही राष्ट्रीय एकात्मता है”, यह पंक्ति संकीर्ण नहीं है, यह समावेशी है। यह राम, कृष्ण, नानक, गांधी और अंबेडकर को एक ही सूत्र में पिरोती है। यह संघ के स्वयंसेवक से लेकर संत रविदास तक, सबको एक ही भारतमाता के चरणों में लाकर खड़ा करती है।

    भारत एक विचार है, और उस विचार में हर स्वर है, हर रंग है, हर विश्वास है। यही एकता है, यही हमारी असली शक्ति है।

  • आदिवासी महिलाएं मुफ्त साड़ी नहीं काम चाहती हैं

    आदिवासी महिलाएं मुफ्त साड़ी नहीं काम चाहती हैं

    महाराष्ट्र के पालघर में एक आदिवासी गांव है वसंतवाड़ी। वसंतवाड़ी में करीब ढाई सौ परिवार रहते हैं। महानगर मुम्बई से मात्र 120 किलोमीटर दूर इस गांव झौंपड़ियां और टूटे घर आज भी आपको दिखेंगे। 16 मार्च को आदर्श आचार संहिता लागू होने से कुछ दिन पहले ही कई गांवों के लोगों को सरकारी राशन की दुकान से लोगों को एक ऐसी मुफ्त साड़ी दी गई थी मार्च में। साड़ी और एक बैग दिया गया था साथ ही गरीब कल्याण योजनाओं का विज्ञापन भी है।

    पिछले साल नवम्बर में ही महाराष्ट्र सरकार ने बड़े त्योहार पर हर साल अंत्योदय राशन कार्ड वाली महिलाओं को मुफ्त साड़ी देने की योजना शुरू की थी। गत 3 और 8 अप्रैल के बीच पालघर के 23 गांवों की सैकड़ों आदिवासी महिलाओं ने जव्हार और दहानू तहसील कार्यालय तक मार्च निकाला तथा 300 से अधिक साड़ियां और तस्वीर वाले 700 बैग वापस कर दिए। ये महिलाएं नारे लगा रही थीं कि हमें मुफ्त चीजें मत दीजिए, हमें नौकरियां दीजिए। बेहतर स्कूल, अच्छी सड़कें और स्वास्थ्य सेवाएं दीजिए।

    वसंतवाडी की महिलाओं को पानी लाने के लिए सुबह 4 बजे उठना पड़ता है। बोरवेल दो किलोमीटर दूर है। हमें हर घर में नल चाहिए। हमें मुफ्त साड़ी और बैग नहीं चाहिए। गांव की 52 वर्षीय लाड़कुबाई तो सीधे सवाल करती है कि अगर आपने हमें नौकरी दी होती तो हम खुद साड़ी खरीद पाते। सरकार हमें साड़ी देने वाली कौन होती है? आपको क्या लगता है कि हम अपने कपडे नहीं खरीद सकते। हम इनसे अच्छी साड़िया खरीदेंगे। आप हमें काम दीजिए।