राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कहानी सौ वर्षों की यात्रा में भारतीय समाज, राजनीति और संस्कृति की दिशा बदलने वाली कहानी है। 1925 में नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जिस छोटे से प्रयास की शुरुआत की, वह आज एक विशाल संगठन बन चुका है। हेडगेवार स्वयं कांग्रेस से जुड़े हुए थे और उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में भाग लिया था, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें यह अहसास हुआ कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से भारत की आत्मा सुरक्षित नहीं होगी। उन्होंने सोचा कि यदि समाज अनुशासित, संगठित और सांस्कृतिक चेतना से संपन्न नहीं है तो राजनीतिक आज़ादी अधूरी रह जाएगी। इसी सोच के तहत शाखाओं की नींव पड़ी, जहाँ शारीरिक व्यायाम, प्रार्थना, खेलकूद और अनुशासन का अभ्यास होता था।
प्रारंभिक दशकों में संघ एक सीमित संगठन था, जो समाज सुधार और चरित्र निर्माण पर केंद्रित था। अंग्रेज़ी शासन के समय इसे राजनीतिक रूप से संदिग्ध दृष्टि से देखा गया, लेकिन धीरे-धीरे इसकी शाखाएँ बढ़ने लगीं। 1947 का विभाजन और विस्थापन का संकट संघ की भूमिका को नए संदर्भ में लेकर आया। लाखों शरणार्थियों को बसाने, भोजन और सुरक्षा देने में स्वयंसेवकों की भागीदारी रही। हालांकि यह काम कई बार औपचारिक इतिहास में दर्ज नहीं हुआ, पर समाज में इसकी स्मृति गहरी रही।
1962 के चीन युद्ध ने संघ की छवि में निर्णायक मोड़ लाया। सीमा पर सैनिकों की मदद और अनुशासनबद्ध योगदान को देखते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने स्वयंसेवकों को गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित किया। यह घटना संघ की स्वीकार्यता का प्रतीक बनी। इसके बाद 1965 और 1971 के युद्धों में भी संघ के स्वयंसेवक राहत और सहयोगी कार्यों में शामिल रहे।
1975 का आपातकाल संघ की परीक्षा का समय था। संघ पर प्रतिबंध लगाया गया, हज़ारों स्वयंसेवक जेल गए और संगठन को भूमिगत होकर काम करना पड़ा। लेकिन इस दमन ने संघ की ताकत को और उभारा। लोकतंत्र की बहाली की लड़ाई में इसकी भूमिका ने जनता के बीच इसे और लोकप्रिय बना दिया। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो संघ की कार्यशैली को लेकर बहस हुई, पर यह साफ था कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में संघ एक महत्वपूर्ण शक्ति बन चुका था।
1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन ने संघ को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में ला दिया। लाखों स्वयंसेवक और उससे जुड़े संगठन मंदिर निर्माण के लिए सक्रिय हुए। यह आंदोलन सिर्फ धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक आत्मविश्वास का प्रतीक बना। इस दौर में संघ की छवि और प्रभाव दोनों तेजी से बढ़े। साथ ही शिक्षा, सेवा, आदिवासी कल्याण और महिला सशक्तिकरण जैसे क्षेत्रों में भी इसकी संस्थाएँ सक्रिय होने लगीं।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ और सरकार के संबंधों पर लगातार चर्चा होती रही। आलोचक इसे सत्ता से नज़दीकी बताते हैं, पर संघ ने हमेशा कहा कि वह राजनीतिक संगठन नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन है। सच यह है कि मोदी युग में संघ की शाखाएँ बढ़ीं, विदेशों में भारतीय समुदाय को जोड़ने वाले मंच बने और सामाजिक कार्यों का दायरा विस्तृत हुआ।
वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ ने समाज में संवाद और परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने बार-बार कहा कि समय बदल रहा है और संघ को भी समय के साथ कदमताल करना चाहिए। जातीय भेदभाव कम करने, सामाजिक समरसता बढ़ाने और नई पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए कई योजनाएँ शुरू की गईं।
आज संघ केवल शाखाओं का संगठन नहीं है, बल्कि लाखों स्वयंसेवकों के जरिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण और सेवा कार्यों में सक्रिय है। आपदाओं के समय राहत कार्य, बाढ़ या भूकंप में त्वरित सहायता और ग्रामीण इलाकों में विकास कार्यक्रम इसकी कार्यशैली का हिस्सा हैं। आलोचनाएँ इसे केवल राजनीतिक चश्मे से देखती हैं, लेकिन संघ का दावा है कि उसका असली कार्य राष्ट्र के चरित्र निर्माण और समाज सुधार में है।
आज जब संगठन शताब्दी की दहलीज़ पर खड़ा है, उसके सामने दोहरी जिम्मेदारी है, एक ओर अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों को सहेजना और दूसरी ओर नई पीढ़ी की आकांक्षाओं को पूरा करना। यही आने वाले सौ वर्षों का वास्तविक एजेंडा होगा, और यही तय करेगा कि संघ केवल इतिहास का हिस्सा बनेगा या भविष्य का मार्गदर्शक भी।
सौ वर्ष पूरे होने के बाद संघ अपने इतिहास को गर्व से देख सकता है। उसने युद्धकाल में सहयोग दिया, आपातकाल में लोकतंत्र की रक्षा की, सांस्कृतिक आत्मविश्वास जगाया और समाज सेवा की असंख्य पहलें कीं। परंतु आने वाली चुनौतियाँ और बड़ी हैं। तकनीकी असमानताएँ, शहरीकरण से पैदा हो रही खाई, पर्यावरण संकट और वैश्विक परिदृश्य में भारत की बढ़ती जिम्मेदारी, इन सबमें संघ से अपेक्षा है कि वह केवल परंपरा का प्रहरी न रहकर आधुनिक भारत के निर्माण में भी उतना ही सक्रिय योगदान दे।
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