कालेधन और वायदा खिलाफी ने संविधान को निष्प्रभावी कर दिया है। नोटा को मिले राइट टू रिजेक्ट का दर्जा।

देश की लोकसभा के गठन के लिए 2 चरण का मतदान हो चुका है। यह देश के भविष्य का चुनाव है। इस चुनाव का इतिहास देखा जाए तो राजनीतिक दल सिर्फ मतदाता को ठगने के लिए मोहक प्रचार सामग्री तैयार करते है। वायदों पर कोई खरा नहीं उतरता। गरीबी और आर्थिक विषमता चारो ओर दिखाई देती है। चुनाव में कालेधन और वायदा खिलाफी का प्रभाव इतना है कि सविधान निष्प्रभावी दिखाई देता है।

कोई सरकार, चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट चुनाव के समय जारी किए जाने वाले राजनीतिक दलों के संकल्प पत्रों, न्याय पत्रों या सीधे सीधे घोषणापत्रों को लागू करने को वैधानिक रूप से अनिवार्य बनाने को तैयार नही है। क्यों नही इन चुनावी घोषणापत्र को लागू करना राजनीतिक दलों की मान्यता से जोड़ा जाता है। अगर राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र लागू नहीं करते तो उनकी मान्यता रद्द की जाना चाहिए। जैसे कि किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को दो वर्ष का कारावास होने पर वो स्वत अयोग्य घोषित हो जाता है। इसी तरह अपने चुनावी वायदे पूरे न करने वाले राजनीतिक दल की मान्यता रद्द होना चाहिए।

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चुनाव आयोग के अधीन एक स्वतंत्र निकाय को चुनावी वायदे पूरे करने के मुद्दे पर समीक्षा का जिम्मा सौंपा जाए। इस निकाय की रिपोर्ट पर राजनीतिक दल की मान्यता रद्द की जाए। नोटा को राइट टू रिजेक्ट का दर्जा भी दिया जाए। चुनाव के लिए मान्यता प्राप्त दलों को चुनाव आयोग के जरिए फंडिंग की व्यवस्था की जाए। राजनीतिक दलों को काले धन की आपूर्ति के सारे रास्ते बंद किए जाए।

अभी चुनाव लड़ने वाले सभी प्रत्याशियों की संपत्ति का विवरण लिया जाता है और हर पांच साल में बेतहाशा बढ़ती संपत्ति का स्रोत नही पूछा जाता। तब ईडी और सीबीआई क्यों हरकत में नही आती। अपने नामांकन के साथ संपत्ति का विवरण दाखिल करने वाले प्रत्याशियों की संपत्ति की जांच लोकपाल, आयकर विभाग को सौंपी जाए। हर निर्वाचित प्रतिनिधि पेंशन लेता है और अपने सेवाकाल में तमाम सुविधाएं लेकर लोकसेवक ही कहलाता है तो क्यों नही उसकी जवाबदेही तय की जाए। उसे लगातार भ्रष्टाचार निरोधक कानून की निगरानी में रखा जाए।

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भारत देश में भ्रष्टाचार की रोकथाम के बंदोबस्तों पर इतना ढीला रवैया अपनाया जाता रहा है कि लोग दशकों इंतजार ने बिता देते है। सन साठ के दशक में लोकपाल की अवधारणा को उस समय के कानून मंत्री अशोक सेन ने प्रस्तुत किया था। कानून विशेषज्ञ लक्ष्मी मल सिंघवी ने लोकपाल शब्द प्रस्तुत किया। सन 1966 में मोरार जी भाई देसाई की अध्यक्षता में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग ने प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने के लिए किसी निकाय की स्थापना का सुझाव दिया था।लेकिन 2011में जन लोकपाल के लिए अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद वर्ष 2013 में संसद में लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक पारित किया जा सका और पहली जनवरी 2014 को राष्ट्रपति ने उसे मंजूरी दी।

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दैनिक दृष्टि के लिए राजेंद्र सिंह जादौन

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