Category: राष्ट्रवाद Nationalism

राष्ट्रभक्ति, सामाजिक चेतना, चरित्र निर्माण और सेवा भावना को प्रेरित करने वाले विचारों व लेखों का संकलन।

  • आदर्शों की दो प्रतिमाएं: हनुमान जी और शिवाजी महाराज से सीखने योग्य जीवन मूल्य

    आदर्शों की दो प्रतिमाएं: हनुमान जी और शिवाजी महाराज से सीखने योग्य जीवन मूल्य

    भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर अनेक महान व्यक्तित्वों से समृद्ध रही है। इनमें से दो ऐसे स्तंभ हैं, हनुमान जी, जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, और छत्रपति शिवाजी महाराज, जिनकी वीरगाथा आधुनिक भारतीय इतिहास में अमर है। इन दोनों महापुरुषों के जीवन, आचरण और आदर्श आज भी हम सभी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

    हनुमान जी: सेवा, शक्ति और समर्पण का प्रतीक

    हनुमान जी को केवल बलशाली देवता के रूप में ही नहीं, बल्कि एक आदर्श सेवक, निष्ठावान भक्त और बुद्धिमान नायक के रूप में भी जाना जाता है। उनका सम्पूर्ण जीवन श्रीराम के प्रति पूर्ण समर्पण, धर्म के प्रति निष्ठा, और संकट के समय अडिग साहस का प्रतीक है।

    निःस्वार्थ सेवा: उन्होंने कभी भी अपने लिए कुछ नहीं मांगा। उनका जीवन यह सिखाता है कि सेवा तभी पवित्र होती है जब उसमें स्वार्थ न हो।

    बुद्धि और बल का संतुलन: ‘बुद्धिमत्ता’ और ‘शौर्य’ का ऐसा संतुलन विरले ही देखने को मिलता है।

    धर्म रक्षक: जब रावण जैसे अत्याचारी सामने हों, तो धर्म के पक्ष में खड़ा होना ही सच्चा कर्म है।

    हनुमान जी का चरित्र हमें यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा केवल साधु भाव से नहीं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर साहस और सामर्थ्य से भी करनी होती है।

    शिवाजी महाराज: आत्मसम्मान, शासन और सांस्कृतिक अस्मिता के नायक

    शिवाजी महाराज का जीवन ऐसे समय में शुरू हुआ जब भारतवर्ष पर विदेशी शासन का अंधकार छाया हुआ था। उन्होंने केवल एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना नहीं की, बल्कि भारतीय संस्कृति, मर्यादा और धर्म की रक्षा के लिए आत्मबलिदान और रणनीति का अद्भुत परिचय दिया।

    स्वराज्य की स्थापना: उनका सपना केवल एक भूभाग जीतने का नहीं था, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था खड़ी करने का था जहां लोगों को सम्मान और आत्मगौरव मिले।

    गौरवशाली परंपराओं की रक्षा: जब मंदिर तोड़े जा रहे थे, जब जनमानस का आत्मविश्वास डगमगा रहा था, तब शिवाजी महाराज एक ऐसे दीपक बने जिन्होंने हिन्दवी स्वराज्य का प्रकाश फैलाया।

    न्यायप्रिय और धार्मिक सहिष्णु: वे अपने शासन में सभी धर्मों को सम्मान देते थे, परंतु अपनी सांस्कृतिक जड़ों से डिगे नहीं। यही संतुलन आज के भारत के लिए अत्यंत आवश्यक है।

    उनका चरित्र आज के युवाओं के लिए यह संदेश देता है कि बिना अपनी अस्मिता खोए, हम आधुनिक भी बन सकते हैं, और न्यायप्रिय भी।

    दो युगों, एक संदेश: धर्म और राष्ट्र की रक्षा

    हनुमान जी ने त्रेतायुग में श्रीराम की सेवा कर धर्म की रक्षा की, तो शिवाजी महाराज ने कलियुग के अंधकार में प्रकाश बनकर संस्कृति और आत्मसम्मान की रक्षा की।
    दोनों ही चरित्र यह दर्शाते हैं कि जब अधर्म बढ़ता है, तब एक समर्पित और साहसी नायक खड़ा होता है: चाहे वह वानर शरीरधारी हनुमान हो या सिंहगर्जना करता मराठा वीर।

    आज भारत को ऐसे ही चरित्रों की आवश्यकता है: जो सेवा में नतमस्तक हों, लेकिन जब जरूरत पड़े तो धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए अडिग खड़े हों।

    हनुमान जी और शिवाजी महाराज दो युगों के दो आदर्श हैं, एक दैवीय, दूसरा मानव रूप में। दोनों का जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि भक्ति केवल पूजा नहीं, बल्कि कर्तव्य पालन है; और राष्ट्रप्रेम केवल शब्द नहीं, बल्कि साहस, त्याग और विवेक का समुच्चय है।

    यदि आज का युवा इन दोनों पथप्रदर्शकों से शिक्षा ले, तो वह न केवल एक सशक्त नागरिक बन सकता है, बल्कि भारत को एक बार फिर आत्मगौरव और सांस्कृतिक स्वाभिमान के शिखर पर पहुंचा सकता है।

  • देवी अहिल्याबाई होलकर: एक आदर्श शासक और जननी स्वरूपा रानी

    देवी अहिल्याबाई होलकर: एक आदर्श शासक और जननी स्वरूपा रानी

    देवी अहिल्याबाई होलकर भारतीय इतिहास की एक ऐसी महान महिला शासक थीं, जिनकी न्यायप्रियता, दूरदृष्टि और सेवा भावना आज भी लोगों के लिए प्रेरणा है। उनका जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी गाँव में हुआ था। बचपन से ही वे सरल, धार्मिक और साहसी स्वभाव की थीं। उनका विवाह मालवा के शासक खंडेराव होलकर से हुआ, लेकिन पति और फिर ससुर मल्हारराव की मृत्यु के बाद उन्होंने शासन की ज़िम्मेदारी संभाली।

    अहिल्याबाई ने इंदौर को प्रशासनिक और सांस्कृतिक केंद्र बनाया। उन्होंने न सिर्फ अपने राज्य को समृद्ध बनाया, बल्कि पूरे भारत में अनेक मंदिरों, घाटों, धर्मशालाओं और कुओं का निर्माण भी करवाया। काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ मंदिर, और द्वारका जैसे अनेक तीर्थस्थलों के पुनर्निर्माण में उनका योगदान अमूल्य है। वे धर्मनिरपेक्षता की मिसाल थीं, सभी समुदायों को समान सम्मान देती थीं।

    उनका शासन महिलाओं के लिए विशेष रूप से सुरक्षित और सशक्त था। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा और अन्य सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। वे प्रजा को अपने परिवार का हिस्सा मानती थीं और हर व्यक्ति की समस्याओं को व्यक्तिगत रूप से सुनती थीं।

    देवी अहिल्याबाई न केवल एक कुशल प्रशासक थीं, बल्कि एक संवेदनशील माँ, धर्मनिष्ठ महिला और दूरदर्शी समाज सुधारक भी थीं। 13 अगस्त 1795 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनके कार्य आज भी देशभर में जीवित हैं। भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया और इंदौर एयरपोर्ट का नाम ‘देवी अहिल्याबाई होलकर एयरपोर्ट’ रखा गया।

    आज भी जब किसी आदर्श शासक की बात होती है, तो देवी अहिल्याबाई का नाम गर्व से लिया जाता है।

  • अनेकता में एकता से कही ज्यादा बड़ा है भारत का विचार और उसकी आत्मा

    अनेकता में एकता से कही ज्यादा बड़ा है भारत का विचार और उसकी आत्मा

    “कोउ नृप होई, हमहि का हानी”, यह भाव तुलसी के रामराज्य का है। शासन कोई भी हो, जब तक संस्कृति जीवित है, समाज अखंड है।

    भारत की आत्मा कभी ‘एक-समानता’ नहीं मांगती, वह ‘एकता’ मांगती है।
    यहाँ काशी भी है, कन्याकुमारी भी। गुरु नानक का शब्द भी गूंजता है, और कबीर की उलटबांसी भी। राम भी पूज्य हैं, और रहमान भी सम्माननीय। यही भारत है, जहाँ भिन्नता में भी आत्मिक एकता की डोर छिपी होती है।

    विविधता का अर्थ अलगाव नहीं

    कई लोग सोचते हैं कि एकता तभी संभव है जब सब एक जैसे बन जाएं, एक भाषा बोलें, एक सोच रखें, एक रंग-रूप रखें।
    पर भारतीय दर्शन कहता है:
    “To be different is not to be separate.”

    मतलब, भिन्न होना, अलग होना नहीं है। यही तो भारत का दर्शन है, “वसुधैव कुटुम्बकम्”, जहाँ हर व्यक्ति, हर परंपरा, हर विचारधारा को अपनी जगह मिलती है।

    जैसे:

    • बांसुरी और मृदंग की ध्वनि अलग है, पर राग एक ही गूंजता है।
    • रंग बिरंगे फूल जब एक माला में गूंथे जाएं, तो वह माला सुंदर बनती है।
      ऐसे ही, भारत तब सुंदर लगता है जब उसमें हर भाषा, हर परंपरा, हर पंथ का स्थान हो।

    संघ का दृष्टिकोण:

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा भी यहीं कहती है: “हिंदू कोई संकीर्ण धर्म नहीं, एक जीवन-पद्धति है।” यह जीवन-पद्धति विविधता को समाहित करती है। संघ जब ‘हिंदुत्व’ कहता है, तो वह इसी संस्कृति की बात करता है, जहाँ राष्ट्र सर्वोपरि है, और समाज स्व-प्रेरणा से एकसूत्र में बंधा हो।

    एकता का मार्ग संस्कार से जाता है, बल से नहीं

    कभी-कभी किसी विषय पर अनुशासन की आवश्यकता होती है। पर उसका उपाय बल (force) नहीं, बल्कि प्रबोधन होता है, समझाना, संस्कार देना, शिक्षित करना।

    “संस्कार से उन्नति करो”, यही संघ का भी मूल मंत्र रहा है। शाखाओं में यही सिखाया जाता है कि समाज जब जागरूक होगा, संस्कारित होगा, तभी वह सशक्त और एकजुट होगा।

    संविधान और एकात्मता

    हमारे संविधान की प्रस्तावना में “राष्ट्रीय एकता” का सूत्र दिया गया है। यह केवल कानूनी वाक्य नहीं, यह भारतीय सभ्यता का निचोड़ है।

    अंत में

    “हिन्दुत्व ही राष्ट्रीय एकात्मता है”, यह पंक्ति संकीर्ण नहीं है, यह समावेशी है। यह राम, कृष्ण, नानक, गांधी और अंबेडकर को एक ही सूत्र में पिरोती है। यह संघ के स्वयंसेवक से लेकर संत रविदास तक, सबको एक ही भारतमाता के चरणों में लाकर खड़ा करती है।

    भारत एक विचार है, और उस विचार में हर स्वर है, हर रंग है, हर विश्वास है। यही एकता है, यही हमारी असली शक्ति है।