भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं और यह केवल किसी एक वर्ग या उम्र तक सीमित नहीं हैं। अवसाद, चिंता, नींद की कमी, चिड़चिड़ापन, नशे की लत, आत्महत्या जैसे मुद्दे अब गाँव-शहर हर जगह दिखने लगे हैं। पहले इन पर खुलकर बात नहीं होती थी, लेकिन अब हालात ऐसे हैं कि नज़रअंदाज़ करना खतरनाक साबित हो सकता है।
कारण साफ हैं। आधुनिक जीवनशैली ने इंसान को शारीरिक रूप से तो सुविधाजनक बनाया है, पर मानसिक दबाव बढ़ा दिए हैं। बड़ी संयुक्त परिवारों की जगह छोटे न्यूक्लियर परिवार आ गए, जहाँ भावनात्मक सहारा कम मिलता है। काम का दबाव, ट्रैफिक और प्रदूषण से भरा रोज़मर्रा का जीवन, समय पर आराम न मिलना, और खानपान में पोषण की कमी, ये सब धीरे-धीरे मानसिक संतुलन बिगाड़ते हैं। सोशल मीडिया और तकनीक ने भी स्थिति को और जटिल किया है। लगातार स्क्रीन पर रहना, दूसरों से तुलना करना, नींद की लय बिगाड़ना और वास्तविक रिश्तों से दूरी पैदा करना तनाव को बढ़ाते हैं।
समस्या की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि लोग इसे बीमारी नहीं मानते। सिरदर्द, बुखार या शुगर जैसी बीमारी पर तुरंत डॉक्टर दिखाया जाता है, लेकिन मानसिक परेशानी पर अक्सर लोग चुप रहते हैं। या तो शर्म महसूस करते हैं, या डरते हैं कि समाज क्या कहेगा। नतीजा यह होता है कि समस्या बढ़ती जाती है और गंभीर रूप ले लेती है।
जरूरत है कि लोग लक्षणों को पहचानें। अगर लगातार उदासी बनी रहती है, काम में मन नहीं लगता, नींद या भूख बिगड़ती है, गुस्सा जल्दी आता है, शरीर में थकान रहती है या आत्महत्या जैसे विचार आते हैं, तो यह चेतावनी है कि मदद लेनी चाहिए। बच्चों और किशोरों में अगर अचानक पढ़ाई से मन हट जाए, चुपचाप रहने लगें, या मोबाइल पर ही डूबे रहें तो परिवार को सतर्क होना चाहिए। बुजुर्गों में अकेलापन और उपेक्षा भी अवसाद का कारण बन सकता है।
मदद के लिए कई रास्ते हैं। पहला कदम है बात करना। परिवार या दोस्त से खुलकर कहना कि आप ठीक महसूस नहीं कर रहे। दूसरा, पेशेवर मदद लेना। अब बड़े शहरों में मनोचिकित्सक, काउंसलर और हेल्पलाइन उपलब्ध हैं। ऑनलाइन काउंसलिंग सेवाएँ भी आ गई हैं, जिससे लोग घर बैठे डॉक्टर से जुड़ सकते हैं। दवा और थेरेपी दोनों का मिलाजुला असर कई बार बेहद कारगर होता है। योग, ध्यान और नियमित व्यायाम मानसिक संतुलन बनाने में सहायक हैं। नींद का समय ठीक करना और मोबाइल-स्क्रीन का इस्तेमाल नियंत्रित करना भी बड़ा फर्क डाल सकता है।
समाज को भी नजरिया बदलना होगा। मानसिक स्वास्थ्य को कमजोरी या शर्म की बात मानना गलत है। इसे उतनी ही गंभीरता से लेना चाहिए जितनी किसी शारीरिक बीमारी को दी जाती है। स्कूल और कॉलेजों में काउंसलिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए ताकि बच्चे दबाव में टूटें नहीं। कार्यस्थलों पर मानसिक स्वास्थ्य अवकाश और सहायता कार्यक्रम ज़रूरी हैं।
भारत के लिए आने वाले वर्षों की सबसे बड़ी चुनौती यही होगी, तेजी से बदलती जीवनशैली के बीच मानसिक स्वास्थ्य को बचाए रखना। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति चेतन रूप से अपनी मानसिक स्थिति पर ध्यान दे, लक्षणों को छुपाए नहीं और समय रहते मदद ले। मानसिक स्वास्थ्य पर चुप्पी तोड़ना ही पहला और सबसे अहम कदम है।
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