आदि शंकराचार्य केवल एक संत नहीं थे, वे समय से परे एक चेतना थे। उनका जन्म भले ही एक विशिष्ट कालखंड में हुआ, लेकिन उनका कार्य और विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना तब था।
भारत, एक ऐसा देश जो असंख्य भाषाओं, मतों और परंपराओं में विभाजित है, वहां उन्होंने अद्वैत वेदांत की दृष्टि से सबको जोड़ा। उन्होंने बताया कि सत्य केवल एक है, और उसके अनुभव का मार्ग आत्म-ज्ञान है। उनके लिए धर्म कोई ढांचा नहीं था, वह एक यात्रा थी, भीतर की यात्रा।
जब वे कहते हैं, “ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या”, तो वे संसार को नकार नहीं रहे थे। वे केवल यह समझा रहे थे कि इस संसार में जो भी बदलता है, वह स्थायी नहीं है। जो भीतर है, वह ही शाश्वत है। यह एक विचार मात्र नहीं, अनुभव की बात है।
उन्होंने न केवल ग्रंथों की व्याख्या की, बल्कि चार मठों की स्थापना करके इस ज्ञान को भारत के चारों कोनों में फैलाया, उत्तर में ज्योतिर्मठ (उत्तरकाशी), दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में पुरी और पश्चिम में द्वारका। यह केवल धार्मिक संस्थाएं नहीं थीं, ये आत्मबोध की चैतन्य शृंखलाएं थीं।

शंकराचार्य का जीवन केवल साधना या ज्ञान तक सीमित नहीं था, उन्होंने तर्क से, संवाद से, यात्रा से, और सबसे बड़ी बात, करुणा से काम लिया। उन्होंने कभी किसी पर अपना मत नहीं थोपा, बल्कि प्रश्न करने और अनुभव से जानने को प्रेरित किया।
आज जब हम धर्म को अक्सर बाहरी प्रतीकों, वाद-विवाद या राजनीतिक खांचों में देखते हैं, तब शंकराचार्य का दर्शन हमें भीतर लौटने का निमंत्रण देता है।
वे हमें यह याद दिलाते हैं कि धर्म, राष्ट्र और जीवन, इन सबकी गहराई में एकता है। और जब हम भीतर से उस एकता को अनुभव कर लेते हैं, तब कोई बाहरी विभाजन टिक नहीं सकता।
यह लेख केवल जानकारी नहीं, एक स्मरण है।
कि हमारी पहचान हमारे विचारों से नहीं, हमारे अनुभव से बनती है। और अनुभव का स्रोत, आत्मा है। जो शंकराचार्य के शब्दों में, न कोई है, न नहीं है, वह केवल है। सत्। चित्। आनंद।
“अपने भीतर झाँको। वहाँ न कोई संप्रदाय है, न मतभेद — बस एक ही सत्य है, जो सबमें समान रूप से विद्यमान है।” – स्मरण शंकराचार्य का
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