बात अब साफ होती जा रही है—कुछ बड़ा पक चुका है, और इस बार सरकार पूरी तरह फ्रंटफुट पर है। दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में जो हलचल है, वह सिर्फ इत्तेफ़ाक नहीं लगती। प्रधानमंत्री मोदी की राष्ट्रपति से अचानक और लगातार मुलाकातें, मंत्रिमंडल स्तर की लंबी मैराथन बैठकों का दौर, और संघ के भीतर समन्वय बैठकों से निकले संकेत—सब कुछ मिलकर एक ही बात कह रहे हैं: सरकार अब आर-पार की मुद्रा में है।
पिछले कुछ समय तक जो सोच “गठबंधन बचाओ” जैसी सतर्कता में लिपटी हुई थी, वह अब “संविधान बचाओ” जैसी निर्णायक सोच में बदलती दिख रही है। संकेत हैं कि सरकार अब सियासी संतुलन से ज़्यादा संवैधानिक संप्रभुता को तरजीह देगी। क्योंकि अगर इन मुद्दों को अब नहीं सुलझाया गया, तो ये विवाद कल देश की रीढ़ को ही तोड़ देंगे।
बंगाल में जिस तरह हिंसा की ज़िम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल (BSF) पर डाली जा रही है, वह सीधे-सीधे केंद्र सरकार की संवैधानिक शक्ति पर हमला है। BSF, जिसे संसद के कानूनों के तहत विशेषाधिकार प्राप्त हैं, उसे राज्य सरकार कटघरे में खड़ा कर रही है। यह सिर्फ एक प्रशासनिक बहस नहीं बल्कि संघीय ढांचे की गरिमा पर सीधा आघात है।
तमिलनाडु में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के टकराव ने जब सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति को ‘निर्देश’ देने की स्थिति में ला दिया, तो यह भारतीय संविधान की मूल संरचना को हिला देने वाली बात बन गई। लोकतंत्र में संस्थाओं का संतुलन ज़रूरी होता है, लेकिन जब राज्यपाल के अधिकारों को राजनीतिक चुनौती दी जाती है, तो सवाल देश की संवैधानिक आत्मा पर उठता है।
इसके साथ-साथ अब राज्यों द्वारा संसद से पारित कानूनों को यह कहकर टालना कि “हम नहीं मानते”, यह संकेत दे रहा है कि कुछ राज्य भारत को एक loosely held कॉन्फेडरेशन की तरह चलाना चाहते हैं। सवाल यह नहीं है कि एक राज्य किसी कानून से असहमत है, सवाल यह है कि क्या अब हर राज्य अपनी-अपनी व्यवस्था चलाएगा? क्या हम एक राष्ट्र हैं या असंख्य इकाइयों का एक अस्थिर गठजोड़?
यह सब सिर्फ राजनीति नहीं है। यह एक गहरी वैचारिक लड़ाई है जो अब खुलकर सामने आ रही है। राहुल गांधी पहले ही कह चुके हैं, “हम RSS और Indian State से लड़ रहे हैं।” अब तमिलनाडु, बंगाल और केरल जैसे राज्य उस लड़ाई को व्यवहारिक रूप देने में जुट गए हैं।
संघ की समन्वय बैठक में जो रुख देखा गया, उससे यह स्पष्ट है कि अब कोई भी निर्णय पीछे हटकर नहीं लिया जाएगा। अब बैकफुट की नहीं, फ्रंटफुट की रणनीति है। चाहे गठबंधन नाराज़ हो, चाहे सहयोगी छिटकें—संविधान की सर्वोच्चता, राष्ट्र की अखंडता और शासन की मर्यादा से ऊपर कुछ नहीं।
यह जो कुछ चल रहा है, वह सिर्फ बैठकों और बयानों का दौर नहीं है, यह तूफान से पहले की शांति है। सवाल अब यह है कि यह ज्वाला नीति बनकर शांत होगी या निर्णय बनकर भड़केगी। और इस बार यह साफ है—2025 का यह समर सिर्फ चुनावी संघर्ष नहीं है, यह एक वैचारिक संग्राम है, जिसकी लपटें देश की राजनीतिक दशा और दिशा दोनों तय करेंगी।
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